Saturday 30 August 2014

मेट्रीमोनियल वाली झूठी लड़की



ये कई साल पहले की बात है। दो लड़कियां थीं। एक ब्‍वॉयफ्रेंड वाली, एक मेट्रीमोनियल वाली।
ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की 24 साल की थी और मेट्रीमोनियल वाली 34 की। दोनों मजबूत दिमागों और फैसलों वाली लड़कियां थीं। दोनों अकेले रहती और अपने पैसे कमाती थीं। दोनों प्‍यार से भरी हुई थीं। फर्क सिर्फ इतना था कि एक प्‍यार में थी और दूसरी होना चाहती थी। मेट्रीमोनियल वाली लड़की भी 24 साल की उम्र में ब्‍वायफ्रेंड वाली लड़की हुआ करती थी। 27 में भी और 30 में भी। अब नहीं थी। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन में प्रेम में पड़ी हुई लड़की से बदलकर वो मेट्रीमोनियल में पड़ी हुई लड़की हो जाएगी। लेकिन वक्‍त के साथ जिंदगी कई ऐसी करवटों में घूमी कि जिस करवट सोने-उठने का न उसे अंदाजा था, न आदत। आदत पड़ते-पड़ते पड़ गई।
ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की मेट्रीमोनियल वाली लड़की को इस तरह जानती थी कि उसका ब्‍वॉयफ्रेंड मेट्रीमोनियल वाली लड़की के दफ्तर में ही काम करता था। दफ्तर में सब आदमी थे और वो अकेली औरत। आदमी उसके थोड़े से उदास मुंहासों वाले चेहरे को रूमाल से ढंककर उसके साथ सोने की योजनाएं बनाते। गंभीर संवादों में कभी-कभी उससे गुजारिश करते कि अब आपको शादी कर लेनी चाहिए। उनके लिए अब तक वो मुंहासों वाली लड़की थी, मेट्रीमोनियल वाली नहीं। जांबाज कुलीग उससे मेट्रीमोनियल देने की बात करते। लड़की अनुसना करती, फिर गर्व से सिर उठाकर इनकार कर देती। नहीं। इस तरह की शादी में मेरा यकीन नहीं।
फिर एक दिन जांबाज कुलीग्‍स पर एक राज जाहिर हुआ। उनमें से किसी ने मेट्रीमोनियल के किसी विज्ञापन में मुंहासों वाली लड़की का नाम और तस्‍वीर देख ली। खबर जंगल में आग की तरह दफ्तर में फैल गई। जांबाज कुलीग्‍स ने उस दिन फिर कहा। आप अपना मेट्रीमोनयल दे दीजिए। लड़की ने फिर सुनकर अनुसना किया। शालीनता से इनकार का नाटक किया।  जांबाज कुलीग मन-ही-मन हंसे। झूठी लड़की। दिया तो है, बोलती क्‍यों नहीं।
ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की को एक दिन उसके ब्‍वॉयफ्रेंड ने विचारधारा के सबसे ऊंचे शिखर पर बैठकर बड़ी हिकारत से मेट्रीमोनियल वाली झूठी लड़की की कहानी सुनाई।
ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की डर गई, कहानी सुनाने के अंदाज से।
उसे मेट्रीमोनियल वाली लड़की पर प्‍यार आया। उसने सोचा, इस वक्‍त वो कहां होगी। क्‍या कर रही होगी। क्‍या मेट्रीमानियल से कोई मिला होगा सचमुच।
लड़का हंस रहा था, कुढ़ रहा था, लड़की के झूठ पर।
"मेट्रीमोनियल दिया तो इसमें दिक्‍कत क्‍या है। अजीब क्‍या है।"
"दिक्‍कत मेट्रीमोनियल में नहीं है। दिक्‍कत झूठ में है। दिखाती तो ऐसे थी, जैसे पारंपरिक शादी में उसका कोई यकीन नहीं। उसने झूठ क्‍यों बोला।"
"वो तुमसे सच क्‍यों बोलती। कौन थे तुम उसके। कुलीग से कोई क्‍यों बोलेगा सच।"
"क्‍यों नहीं बोलना चाहिए सच।"
"तुम जाकर ऑफिस में ये सच बोलते हो क्‍या कि सोते हो मेरे साथ।"
"वो अलग बात है।"
फिर सत्‍य, विचारधारा और छाती ठोंककर हमेशा सच बोले जाने पर एक लंबा भाषण हुआ।
ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की मेट्रीमोनियल वाली लड़की से कभी मिली नहीं थी। सिर्फ नाम से  जानती थी।
ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की उस दिन बहुत उदास हो गई। पहली बार उसे लगा कि उसने गलत लड़का चुन लिया है। आखिर उसको क्‍यों जानना चाहिए था कि उस लड़की ने मेट्रीमोनियल दिया या नहीं। या अपनी शादी का वो क्‍या कर रही है। ब्‍वॉयफ्रेंड ने उस महानगर में मेट्रीमोनियल वाली लड़की के दुख और अकेलेपन को जानने की कभी कोशिश नहीं की होगी। बुखार वाली तपती अकेली रातों के बारे में भी नहीं। बिना चुंबनों के काटी सैकड़ों रातों के बारे में भी नहीं। वकत के साथ मुरझाती उम्‍मीद के बारे में भी नहीं। उसका बचपन, उसका जीवन, उसका, अतीत, आंखों के काले घेरे, माथे पर फैलती झुर्रियां कुछ भी जांबाज कुलीगों के चिंता के सवाल नहीं थे। उन्‍हें चिंता सिर्फ इस बात की थी कि मेट्रीमोनियल देने के बावजूद छिपाया क्‍यों। मेट्रीमोनियल वाली झूठी लड़की।
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ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की उस दिन देर रात तक समंदर के किनारे अकेली बैठी रही। साउथ बॉम्‍बे की सड़कों पर भटकती रही। उसे डर लगा कि एक दिन वो भी ब्‍वायफ्रेंड वाली लड़की से मेट्रीमोनियल वाली लड़की में न बदल जाए। उसने देखा अपने आपको मेट्रीमोनियल वाली लड़की में बदलते हुए। दोनों लड़कियों ने एक-दूसरे के चेहरे पहन लिए। ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की मेट्रीमोनियल वाली लड़की का अतीत थी। मेट्रीमोनियल वाली लड़की ब्‍वॉयफ्रेंड वाली लड़की का भविष्‍य। दोनों एकाकार हो गईं।
दोनों समंदर किनारे उस रात गले मिलकर खूब रोईं। 

Saturday 23 August 2014

बाजार और उदासी



शॉपिंग - 1
दिल्‍ली का सरोजनी नगर मार्केट लड़कियों की सोशियोलॉजिकल स्‍टडी के लिए सबसे मुफीद जगह है। संसार के किसी कोने में एक साथ, एक जगह इतनी खुश, उत्‍साहित और चमकीली आंखों वाली लड़कियां नहीं होंगी, जितनी यहां दिखती हैं। सस्‍ते दाम में अपनी पसंद का एक सेक्‍सी टॉप पा लेने की खुशी यहां देखी जा सकती है। टॉप, जो मॉल में 3000 रुपए में बिकने वाले टॉप जैसा ही दिखता है। 100-100 रुपए में बिक रहे पुराने कपड़ों के ढेर में बेचैन आंखें अपनी पसंद की ड्रेस ढूंढ रही हैं। वो कुछ ऐसे ढूंढ रही हैं, जैसे प्‍यार ढूंढ रही हों। लड़कियों को लगता है कि सुंदर ड्रेस पहनने से लड़का मिलता है। लड़का प्‍यार करता है। प्‍यार से खुशी आती है। इस तरह लड़कियां सरोजनी नगर में ड्रेस के बहाने दरअसल खुशी ढूंढ रही हैं।
पूरे दिल्‍ली शहर की लड़कियां खुशी ढूंढ रही हैं।

शॉपिंग - 2
दो घंटे से मॉल में इधर-उधर घूम रही हूं, लेकिन खरीदा कुछ नहीं। ऐसा नहीं है कपड़े नहीं हैं मेरे पास। कबर्ड भरा पड़ा है। फिर और क्‍यों चाहिए। सिर्फ जरूरत भर का रखने वाला संयम न भी मानें तो जरूरत से काफी ज्‍यादा है। फिर भी अलग-अलग शोरूम में जाकर हैंगर में टंगे स्‍कर्ट, फ्रॉक, ट्राउजर्स और टॉप को इस तरह क्‍यों स्‍कैन कर रही हूं। ऐसा बार-बार क्‍यों लगता है कि बाकी सब तो ठीक है मेरे साथ। बस ये वाली ड्रेस और पहन लूं तो दुनिया की सबसे डिजायरेबल औरत हो जाऊंगी। मार्क्‍स एंड स्‍पेंसर में एक व्‍हाइट स्‍कर्ट लगी है। घुटनों तक की। मेरे पैर सुंदर हैं। वैक्‍स और स्‍क्रब करके सिल्‍वर सैंडल के साथ ये स्‍कर्ट पहनी जाए तो हर कोई पलटकर एक बार देखेगा तो जरूर। पैर खुले हों तो क्‍या चाल में ज्‍यादा कॉन्फिडेंस आ जाता है।
जब चारों ओर सबकुछ चीख-चीखकर कह रहा हो कि इस मॉल के शोरूम्‍स में जिंदगी की सब खुशियों की चाभी है तो भी मन अपराजेय ढंग से बिना किसी शुबहा के इस बात पर यकीन क्‍यों नहीं कर पाता। क्‍यों मॉल में घूम भी रही हूं और कुछ खरीद भी नहीं पा रही।

शॉपिंग - 3
आज वेस्‍टसाइड से काफी शॉपिंग की। ट्राउजर, टॉप, स्‍कर्ट और एक और कुर्ता। बिलिंग करवाकर हाथ में पैकेट उठाए बाहर आई हूं और खुश हूं। खुशी कितनी आसान चीज है। कितने सुंदर कपड़े हैं न। साथ में एक लड़की भी है। स्‍टूडेंट है। मैं कहती हूं मेरी दोस्‍त है। वो भी मानती है कि मैं दोस्‍त हूं। हम अच्‍छे दोस्‍त हैं भी। एक समझदार, संवेदनशील लड़की, जिससे दिमाग से बात की जा सके और मन में उतरकर भी। उसने कुछ नहीं खरीदा। ज्‍यादा पलटकर कुछ देखा भी नहीं। शायद उसे पता था कि जब कुछ खरीदना नहीं तो देखना क्‍या। हालांकि ट्रायल रूम के बाहर खड़ी वो काफी उत्‍साह से बताती रही कि "यू आर लुकिंग सेक्‍सी बेब। ये वाला नहीं। नो, इट्स नॉट गुड। ये स्‍कर्ट बढिया है।"
मैं खरीद रही हूं क्‍योंकि मेरी जेब में पैसे हैं। उसके नहीं हैं। क्‍या ये बात उसे खल नहीं रही होगी? क्‍या ये बात मुझे खल रही है? ये डिसपैरिटी। डिसपैरिटी कैसी भी हो, दुख देती है। क्‍या वो इस वक्‍त वैसा ही महसूस कर रही होगी, जैसा मुंबई में उस कॉमरेड महिला को फैब इंडिया से शॉपिंग करते देख मुझे महसूस हुआ था। ऐसे मौकों पर विचार हवा हो जाते हैं। जिसकी जेब भारी हो, उसके चेहरे और चाल में ज्‍यादा भरोसा होता है। पर्स में सिर्फ 300 रुपए लेकर मॉल आया व्‍यक्ति वैसे ही खुद में सिमटा और आत्‍मविश्‍वासहीन होता है। तब मार्क्‍सवाद भी  कॉन्फिडेंस नहीं देता।
कॉन्फिडेंस तो अब वेस्‍टसाइड के बाद शॉपर्स स्‍टॉप से मैक की एक लिप्‍सटिक खरीदने के बाद ही आएगा।  

शॉपिंग - 4
कल इस तरह काम के बीच जल्‍दबाजी में लाजपत नगर जाने का कोई लॉजिक नहीं था। बहुत सारे कपड़े हैं और उनमें से कोई उसने नहीं देखे। कोई भी पहना जा सकता है। लेकिन उसने नहीं देखे तो क्‍या हुआ। मैंने तो देखे हैं। पहने हैं। मेरे लिए सब पुराने हैं। कल शाम हैबिटैट में उससे मिलना है और मैं नया कुर्ता पहनकर जाना चाहती हूं। जल्‍दबाजी में मैंने नीले रंग का एक चिकन का कुर्ता खरीदा। सुंदर है, महंगा भी। कल मोतियों के सेट के साथ इसे पहनकर मैं बिलकुल नई लगूंगी। लेकिन ऐसी बेवकूफानी तैयारी किसके लिए। होल्‍ड ऑन। ब्‍वॉयफ्रेंड नहीं है वो। प्रेमी भी नहीं है। न कभी होगा। नॉर्मल रहो न। लेकिन उम्र बढ़ते जाने के साथ ये हो नहीं पा रहा। ढलती देह और सफेद होते बालों के साथ सुंदर दिखना क्‍यों इतना जरूरी लगने लगा है। जो भी हो। फिलहाल ये सोचना नहीं चाहती। बस कल नए नीले कुर्ते में उससे मिलना चाहती हूं। प्रेमी न भी हो तो भी चाहती हूं कि मैं उसे अच्‍छी लगूं। वो सोचे कि लड़की इंटैलीजेंट ही नहीं, ब्‍यूटीफुल भी है। डिजायरेबल है।
मुलाकात हो गई। ठीक रही। पहले जाड़े की धूप सा उत्‍साह था, अब कोहरा गिर रहा है। कमरे में एक पीली रौशनी वाला बल्‍ब है। नीला कुर्ता कुर्सी पर बेतरतीब, लापरवाह सा पड़ा है। कल तक बहुत दुलार से रखा गया था। आज जल जाए, फट जाए, कीचड़ में जाए, मुझे परवाह नहीं। कुर्ते से मेरा कनेक्‍ट खत्‍म हो गया है। मैं उसे अब सहेजना नहीं चाहती।
लेकिन मेड कल सुबह खुद ही धोकर सुखा देगी। अपनी उम्र तो मेरे कबर्ड में वो पूरी करेगा ही।

शॉपिंग - 5
बोर्डिंग शुरू होने में अभी एक घंटा है। एयरपोर्ट से रेवलॉन का काजल खरीदा। एक काजल 1200 रुपए का। बहुत सॉफ्ट है। इसे आंखों पर घिसना नहीं पड़ता। अपने आप फिसलकर लग जाता है। आंखों पर मोटे से आइलाइनर की तरह। बड़ी आंखें और भी बड़ी लगने लगती हैं। लगता है सुंदर दिख रही हैं। बहुत रूमानी मूड में होता तो वो भी कहता था। मैं आंखों को सुंदर दिखाने के लिए मरी जा रही हूं। बूढ़ी होती आंखें सुंदर दिखने के लिए बेचैन हैं। लेकिन इस सच को कैसे झुठलाऊं कि कितना भी आइलाइनर लगा लो, आंखों की उदासी जाती नहीं। आंखों के दुख 1200 खर्च कर सकने की औकात से नहीं कम होते।
आंखों के दुख आंखों को देख सकने और पढ़ सकने की ताकत से कम होते हैं और इस बात से कि आंखों ने दूसरे की आंखों में अपने लिए क्‍या देखा।

शॉपिंग - 6
हमें लगता है कि रंगीन ड्रेस से दिल की बेरंग उदासी खत्‍म हो जाएगी। मुलायम मखमली छुअन वाला एक बहुत सेक्‍सी गाउन और उसे पहने जाने की कल्‍पना जीवन के विद्रूप मिटा देगी। कि एक खूबसूरत महंगी ब्रा खरीदने के बाद उस रात सुकून भरी नींद आएगी। ढेर सारे सेक्‍सी जूतों में मुझे इस सवाल का जवाब मिल जाएगा कि इस दुनिया में मेरे होने के मायने क्‍या हैं। कि एक डियो जीवन में खुशी लेकर आएगा। बाजार हर चीज प्रेम और रिश्‍तों का लेबल लगाकर बेच रहा है और हम खरीद रहे हैं। हम खरीद रहे हैं और खुद से कह रहे हैं कि ये खरीदना दरअसल प्‍यार करना है। और इस तरह हम खरीद नहीं रहे, हम प्‍यार कर रहे हैं।
मैं भी प्‍यार कर रही हूं सबकी तरह। लेकिन ये प्‍यार ही घर में कहीं नहीं है, जबकि सब सामान खरीदे जा चुके हैं।

Tuesday 25 June 2013

दो औरतों की कल्‍पना

इस कहानी में सिर्फ नाम और पहचान बदल दी गई है। बाकी एक-एक बात बिलकुल सच है।

एक डच महिला के साथ महान गौरवशाली संस्‍कृति वाले हमारे देश में गैंग रेप हुआ। देश की राजधानी की एक एम्‍बैसी में उसके केस की सुनवाई चल रही थी। वकील ने लड़की से पूछा, "क्‍या आप गैंग रेप करने वाले लोगों को आइडेंटीफाई कर सकती हैं।"
लड़की बोली, "नहीं।"
"क्‍यों?"
लड़की की Eye Side कमजोर थी। वह चश्‍मा लगाती थी। उन लोगों ने उसका चश्‍मा तोड़ डाला था। चारों तरफ अंधेरा था। रात का समय। वह नहीं पहचान पार्इ। लेकिन उस लड़की ने एक बात और कही थी। वह बोली,
"नहीं। मैं उन्‍हें आइडेंटीफाई नहीं कर सकती। मैंने उन्‍हें नहीं देखा। उस वक्‍त मैंने अपनी आंखें बंद कर ली थीं और सोच रही थी कि मैं नीदरलैंड में हूं। उस वक्‍त मैं उस क्षण के बारे में नहीं सोचना चाहती थी। मैं ये कल्‍पना कर रही थी कि मैं वहां हूं ही नहीं। मैं अपने देश में हूं। अपने घर में। अपने ब्‍वॉयफ्रेंड के साथ।"
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फिल्‍म बैंडिट क्‍वीन का एक दृश्‍य है, जब बहमई के ठाकुर अपनी मर्दाना एकता के साथ इकट्ठे हुए हैं एक औरत को उसकी औकात बताने के लिए। जबर्दस्‍ती फूलन देवी के साथ हिंसक सामूहिक बलात्‍कार करने के लिए। जब एक-एक करके वह उस झोपड़ी में जा रहे हैं और आ रहे हैं, उस वक्‍त एक धुंधला सा आकार दिखता है। फूलन देखती है कि विक्रम मल्‍लाह उसके सिरहाने खड़ा है। वह उसका हाथ थाम रहा है, उसके सिर पर हाथ फेर रहा है, उसका माथा चूम रहा है। एक-एक करके ठाकुर आ रहे हैं और जा रहे हैं। सब साबित कर रहे हैं कि वे मर्द है और जब चाहें, जैसे चाहें, जहां चाहें, औरत को उसकी दो कौड़ी की औकात बता सकते हैं।  उस समय, उस सबसे यातना भरे समय में फूलन उस आदमी के बारे में सोच रही है, जिससे उसे जिंदगी में प्‍यार और इज्‍जत मिली थी। असल में तो विक्रम मल्‍लाह वहां है ही नहीं। वह मर चुका है। यह सिर्फ फूलन की कल्‍पना है।

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क्‍या ये अजीब है कि दोनों औरतों की कल्‍पना में इतना साम्‍य है। दोनों अपने जीवन के सबसे दुखद क्षण में सबसे सुंदर क्षण के बारे में सोच रही हैं। जीवन जब सबसे गहरी पीड़ा से गुजर रहा है, मुहब्‍बत भरा एक हाथ उन्‍हीं के हाथ को कसकर थामे हुए है।

लेकिन मैंने ये बताने के लिए ये दोनों कहानियां नहीं सुनाईं कि जिंदगी हर क्षण उम्‍मीद है। कि सामूहिक बलात्‍कार के समय एक औरत अपनी आंखें बंद करके सोचती है कि उसे प्रेम करने वाले पुरुष ने उसका हाथ कसकर थाम रखा है। वह सोचती है कि वह दरअसल वहां है ही नहीं। वह सोचती है कि सब पहले की तरह सुंदर है। ये तो मैं जानती ही हूं। मैं भी तो एक औरत हूं।

मैं बताना दरअसल कुछ और चाहती हूं।

उस दिन दिल्‍ली की एम्‍बैसी में जब उस डच लड़की ने यह बयान दिया तो वहां मौजूद वकील, जिसकी निगाहें अब तक उस डच औरत की छातियों पर गड़ी हुई थीं, को हंसी आ गई। उसने बहुत घूरती, अश्‍लील नजर से उसे देखा और बोला, "ये कैसे हो सकता है मैडम कि आपने उन्‍हें देखा ही न हो। आइडेंटीफाई किए बगैर केस कमजोर हो जाएगा। पहचान तो करनी पड़ेगी।" फिर वह धीरे से अपने कुलीग से बोला, "आंखें बंद करके मजे ले रही थी।" वकील साहब इतने से नहीं माने। बाद में बाहर निकलकर ट्रांसलेटर लड़की से बोले, “अरे मैडम, इन लोगों से बात मत करिए। ये विदेशी औरतें बहुत गंदी होती हैं। इनका क्या, ये तो किसी के भी साथ सो जाती हैं।” और सिर्फ वह वकील ही क्‍यों, उस केस की वकालत कर रहे और उस वक्‍त कोर्टरूम में मौजूद सारे मर्दों को उस लड़की के बयान पर हंसी ही आई थी। जो लोग कनखियों से उसकी छातियों का एक्‍सरे निकाल रहे थे, वही उस दिन उसे न्‍याय दिलाने के लिए वहां बैठे थे।

कोर्ट रूम में उस डच लड़की को समझ में नहीं आया कि हिंदी में कहा क्‍या गया था। वहां मौजूद ट्रांसलेटर ने उस वाक्‍य का कभी अनुवाद नहीं किया। और मुझे शक है कि उस डच लड़की का वह बयान भी दर्ज नहीं किया गया था। "क्‍या आप आइडेंटीफाई कर सकती हैं?" के जवाब में उन्‍होंने बस इतना ही लिखा होगा, "नहीं।"

मैं कभी आरटीआई लगाकर उस दर्ज बयान की कॉपी जरूर निकलवाऊंगी।

Monday 7 February 2011

एक पोलिश कवि और एक हिंदुस्‍तानी लड़की

जयपुर से लौटकर
तीसरा हिस्‍सा

शायद वो 17 या 18 तारीख की एक बकवास सी दोपहर थी, जब जयपुर जाने का वक्‍त नजदीक आ रहा था और जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की वेबसाइट पर दिए सभी सत्रों की डीटेल पढ़ते हुए मैंने पाया कि उनमें एक नाम एडम जगायवस्‍की का भी है। ओह, ये क्‍या हो रहा है? एक के बाद एक खुशी और उत्‍तेजना से दीवाना कर देने वाले शॉक। मैंने तुरंत गीत का नंबर घुमाया और उसे भी इस खबर से खुश होने और मुझसे थोड़ी सी ईर्ष्‍या करने का मौका दिया। मैं सचमुच बेहद खुश थी कि मैं जयपुर जा रही थी।

24 तारीख को दरबार हॉल में 11 बजे से एडम जगायवस्‍की का सेशन था – सॉलिटरी सॉलीट्यूड। उनसे बात कर रही थीं उर्वशी बुटालिया। एडम को मैं बेशक तस्‍वीरों में देख चुकी थी। लेकिन तस्‍वीर आंखों के कितनी भी करीब क्‍यों न हो, तस्‍वीर के ठीक बगल में एक अदृश्‍य ऊंची दीवार होती है। हाथ उस दीवार के पार नहीं जाते, लेकिन इस वक्‍त वे ठीक मेरे सामने बैठे थे। मैं उन्‍हें बोलते हुए सुन सकती थी, हाथ बढ़ाकर छू सकती थी। मैंने हाथ बढ़ाकर उन्‍हें छुआ भी था। एडम को देखकर ये नहीं लग रहा था कि यह विस्‍साव शिंबोर्स्‍का और चेस्‍वाव मिवोश की धरती से आने वाला एक महान कवि है। वह एक बेहद साधारण सा इंसान था, जिसकी आंखों में बच्‍चों जैसी चमक और भोलापन था। उसकी आवाज धीमी और किसी गहन कंदरा से आती मालूम देती थी। लेकिन उसके शब्‍दों में प्रेम और अवसाद की गहराई थी।

ये जानना अजीब है और सुंदर भी कि संसार की हर महान रचना Melancholic ही क्‍यों होती है और रचनाकार शांत, गहरा और उदास। दुनिया के हर शोर और बेहिसाब आवाजों के बीच वह अपना एक मौन एकांत रच लेता है और उसे उदासी के रंगों से सजाता है। अवसाद के गाढ़े रंगों से। इस अवसाद का रंग जीवन के गहरे दुखों और मर जाने की हद तक तकलीफ देते अन्‍याय और गैरबराबरी का रंग नहीं है। यह अवसाद जीवन की असल उदासियों से भागने या मुंह चुराने का रास्‍ता भी नहीं है। यह उन तकलीफों का अस्‍वीकार है। दुख और अन्‍याय का अस्‍वीकार है। इस Melancholy  का अपना सुख है, अपना स्‍वाद भी।

उस दिन उन्‍होंने वहां जो कविताएं पढ़ीं, उनमें भी वह स्‍वाद था। एडम की समूची मौजूदगी में वह स्‍वाद था। पता नहीं एक गरीब और चोट खाए मुल्‍क की बहुसंख्‍यक आबादी इतनी परिपक्‍व है या नहीं कि Melancholy  के उस स्‍वाद को परख पाए, उसे जी पाए। लेकिन जिन्‍होंने भी इसे खोजा है, वे जानते हैं इसका नशा। इसमें डूब जाने की बेहिसाब दीवानगी को जानते हैं। और वो बार-बार एडम जगायवस्‍की, चेस्‍वाव मिवोश और शिंबोर्स्‍का की Melancholic दुनिया में लौट-लौटकर जाते हैं।

वो सेशन जिंदगी के एक दिन को खूबसूरत बना देने के लिए काफी था। उसके बाद मैं बिना कुछ किए भी इधर-उधर भटक सकती थी और एक अज्ञात खुशी की चौंध अपने भीतर महसूस कर सकती थी। एक Melancholic खुशी। 24 तारीख की रात  तक मैं बेहद खुश रही। उसी रात होटल के कमरे की बालकनी में खड़ी जब मैं उस  कवि के बारे में सोच रही थी, जो कहता है कि अपने पड़ोसियों के लिए वो कोई वर्ल्‍ड पोएट नहीं है, बल्कि एक आम आदमी है, जो सुबह के नाश्‍ते के लिए ब्रेड खरीदने जाता है तो मैं कतई ये नहीं जानती थी कि अगले दिन इसी वक्‍त मैं उससे कह रही होंगी कि मैं आपसे बहुत प्‍यार करती हूं। मैं उसे धरती के उस कोने के बारे में बताऊंगी, जहां मेरा जन्‍म हुआ। इस देश के उस हिस्‍से के बारे में, जहां मैं बड़ी हुई हूं। मैं तब ये भी नहीं जानती थी कि अपनी उन्‍हीं ईमानदार आंखों से वो मुझसे पूछेंगे, Manisha, tell me about your country. और फिर मैं बताऊंगी एक देश में बसने वाले उन असंख्‍य देशों के बारे में।

25 तारीख की रात जयपुर से दूर आमेर के किले में राइटर्स बॉल था। वहां कुछ चुनिंदा लोग ही आमंत्रित थे। यह किला शहर से इतना दूर था कि शहर की चमकीली बत्तियों के आखिरी निशान तक वहां नहीं पहुंचते थे। दूर तक काला आसमान था और किले की भव्‍य दीवारें। एक हाथ में वाइन का ग्‍लास और दूसरे में सिगरेट लिए मैं दूर अकेली खड़ी खुश होती, बातें करती, नाचती और संगीत में डूबी हुई भीड़ को देख रही थी। भीड़ में मैं अकसर ऐसा ही करती हूं। खुद को खोया हुआ सा पाती हूं और फिर एक कोना ढूंढकर अपना एक सुरक्षा घेरा बना लेती हूं। इस घेरे में मैं खुश होती हूं और उदास। एक Melancholic खुशी।

मैं और एडम जगायवस्‍की : तस्‍वीर जो उनकी पत्‍नी ने खींची थी
मैं खड़ी थी कि तभी मेरी नजर एडम और उन दो लड़कियों मोनिका और मारीया पर पड़ी, जिन्‍होंने उनकी कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया है। वो दोनों मुझे एक दिन पहले एडम के सेशन में मिल चुकी थीं और उन्‍होंने बताया था कि हिंदी ब्‍लॉग वाले सेशन में उन्‍होंने मुझे बोलते हुए सुना था और ये भी कि मैंने सबसे अच्‍छा बोला। (ऐसा उनका कहना था।) उन्‍होंने मुझे एडम की हिंदी में अनूदित किताब पराई सुंदरता में कि एक कॉपी भेंट की।

अब तक वो भी मुझे देख चुकी थीं। उन्‍होंने आंखों से स्‍वागत किया और मैं उनके पास गई। मौसम बहुत मीठा और खुशगवार था। एडम हाथ में वाइन का एक गिलास लिए मुस्‍कुरा रहे थे। मुझे लगा अब मैं उनसे वो कह सकती हूं, जो कल नहीं कह पाई। मैंने उनसे वो सब कहा, जो पिछली रात होटल के कमरे की बालकनी में खड़ी मैं सोच रही थी। 

Adam, I like you and your poems so much that I am almost in love with you.
एडम बड़े प्‍यार से मुस्‍कुराए। 
Thank you dear.
फिर मैंने अपने पर्स से एक कैमरा निकाला और मोनिका के बगल में ही बैठी हुई एक बेहद खूबसूरत सी स्‍त्री से पूछा, Can you please take a picture of us?
Sure.
और कैमरा मैं उनके हाथों में थमाकर एडम के बगल में बैठ गई। मेरा हाथ उनके कंधों पर था। मेरी आंखों में बेहिसाब खुशी की चमक थी। अचानक वह बोल पड़ीं,
Surely I will but please mind, I am his wife.
Oops :(
Well, Its ok. But still you can take one picture.
:)
उन्‍होंने हमारी तस्‍वीर ली। हम चारों आपस में काफी हंसी-मजाक कर रहे थे। तभी मोनिका ने पूछा, Manisha, tell me one thing? Why did you say that you are almost in love? Why not completely?
Well (I looked at his wife, gave her a smile and said) because of her.

एडम अपनी पत्‍नी के साथ
एडम, उनकी पत्‍नी, मोनिका, मारीया और मैं, सभी ठठाकर हंस पड़े और मैंने आगे जोड़ा- Because of her and because of my boyfriend.

If he will come to know that you are here, expressing your affection for Adam, will leave all his work and run for Jaipur right away. यह मारीया थीं। उन्‍होंने एक पंजाबी से विवाह किया है और पिछले तीस सालों से हिंदुस्‍तान में रह रही हैं।

यह सवाल मारीया और मोनिका दोनों का ही था शायद कि जिस तरह उस दिन ब्‍लॉग वाले सेशन में मैंने बेहिसाब, बेखौफ बातें कीं और जिस तरह सिगरेट और वाइन के साथ वहां खड़ी थी, एक इंडियन लड़की होकर मैं ऐसे जीना कैसे अफोर्ड कर पाती हूं।

मोनिका पोलैंड में हिंदी पढ़ाती हैं और मारीया तीस साल से हिंदुस्तान में रह रही हैं। वह जानती हैं इस देश को और इस देश की लड़कियों को भी। अच्‍छी इंडियन लड़कियां ऐसी नहीं होतीं। तुम इंडियन तो हो, तो क्‍या अच्‍छी नहीं हो।

बेशक मेरे लिए ये अफोर्ड कर पाना आसान नहीं है क्‍योंकि मैं हिंदुस्‍तान के उस मुट्ठी भर अमीर, अपर क्‍लास एलीट वर्ग से भी नहीं आती, जिसके लिए तथाकथित परंपराएं, नैतिकता ज्‍यादा मायने नहीं रखते। वे आधुनिक हैं, जिसे पामुक बार-बार कहते हैं – Modern. A writer must should be first of all a Modern. वे अंग्रेजीदां हैं और अंग्रेजी तमाम गुलामी और अंतर्विरोधों के बावजूद एक हद तक लिबरेट तो करती ही है। मैं हिंदी प्रदेश के एक निम्‍न मध्‍यवर्गीय परिवार की लड़की हूं और बहुत छोटे नैतिक दायरे में ही बड़ी हुई हूं। मुझे बहुत लड़ना पड़ा है और आज भी हर दिन लड़ती हूं। अपने आसपास की दुनिया से और अपने आप से भी।
लेकिन मेरा जवाब बहुत साफ था - 

Monika, I am always considered as a bad girl.
You should have proud to be a bad girl.
Tell me Manisha, what bad things you do? यह सवाल एडम की पत्‍नी पूछ रही थीं। 
I said, I live my life the way I want to live.
Oh, that’s the hell, just not bad.

शायद वो भी जानती होंगी हिंदुस्‍तान को। तभी तो उन्‍हें अपनी मर्जी से अपनी तरह की जिंदगी जीने का निर्णय सिर्फ बुरा नहीं, बल्कि नरक बराबर लगा था।

एडम और उनकी पत्‍नी। साथ मैं है मोनिका ब्रोवार्चिक।
मारीया हिंदुस्‍तान के अपने अनुभव बताने लगीं। उन्‍होंने कहा, अब तो स्थितियां फिर भी काफी बदल गई हैं। 25 साल पहले अगर मैं आधे घंटे के लिए भी घर से कहीं बाहर जा रही होती तो मुझे अपनी सास को बताकर जाना पड़ता था कि मैं कहां जा रही हूं और कब लौटूंगी।

इंडिया के बारे में जानना कितना इंटरेस्टिंग है न ?

मामूली इंसानी आजादी के प्रति दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का जितना अलोकतांत्रिक रवैया है, क्‍या हम कभी सोचते हैं कि ज्‍यादा आधुनिक विचारों वाली धरती से आने वाले लोग इस झूठ के बारे में क्‍या सोचते होंगे। कितने मक्‍कार हैं हम। हर चीज में दोहरापन। गरीबी और गुलामी का कितना लंबा इतिहास है। कैसे बेतरतीब बिखरे अंधेरे हैं और उस पर रोशनी की चमकदार पर्तें सजाने की कितनी मुस्‍तैद परंपरा। हमारी बार-बार टूटी रीढ़ ने, दुख और गुलामी ने हमें इतनी भी समझ नहीं दी, इतना भी परिपक्‍व नहीं बनाया कि हम इन दुखों को समझ पाते या कम से कम ठीक से देख ही पाते। इतने तो बड़े हो पाते कि Melancholy में एक बार उतर पाते। हमने गैरबराबरी और अन्‍याय को जितनी इज्‍जत से स्‍वीकार किया है और कभी सवाल भी नहीं किया, ये ख्‍याल भी डराता है।

एडम ने मुझसे पूछा था, Manisha, tell me about your country. What India is?
मैं क्‍या कहती। कोई एक हिंदुस्‍तान हो तो बताऊं। 
यहां एक देश में कई देश बसते हैं। 
फिर भी मैंने उन्‍हें बताया अपने देश के बारे में। 

जारी……..

पहला हिस्‍सा

दूसरा हिस्‍सा

Sunday 6 February 2011

अवसाद का काला रंग और ओरहान पामुक

जयपुर से लौटकर
दूसरा हिस्‍सा

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जाने के प्रस्‍ताव के साथ मैंने जो सबसे पहला काम किया था, वह था उनकी वेबसाइट पर जाकर ये पता करने का कि वहां कौन-कौन आ रहा है और ओरहान पामुक, जेएम कोएत्‍जी, एडम जगायवस्‍की, विक्रम सेठ, नाम ली, रस्किन बॉन्‍ड वगैरह के नाम पढ़ते हुए इतनी उत्‍तेजित हो गई थी कि मुझे भी ब्‍लॉग राइटिंग के बारे में वहां कुछ बोलना है, जैसा ख्‍याल ही बहुत स्‍टुपिड लग रहा था। यूं नहीं कि ये बात मैं अभी कह रही हूं, बल्कि तब भी मैं ये बहुत साफ-साफ जानती थी कि अगर हिंदी ब्‍लॉगिंग वाला सेशन नई भाषा नए तेवर पामुक के सेशन आउट ऑफ वेस्‍ट के पैरलल होता तो मैं निश्चित ही जानती थी कि मेरी प्रिऑरिटी क्‍या है। मैं ब्‍लॉग को बाय बाय करती और रवीश और गिरिराज को कह देती कि तुम लोग ब्‍लॉग के बारे में जो चाहो बात कर लो, मुझे पामुक को सुनने दो। ब्‍लॉग पर न बोलकर मेरे जीवन का कुछ छूट नहीं जाएगा, लेकिन पामुक को नहीं सुन पाई तो बहुत कुछ छूट जाएगा। ऐसा, जिसकी रिकवरी नहीं हो सकती। वैसे भी हिंदी ब्‍लॉगिंग पर मैं कोई महान डिसकवरी नहीं करने जा रही। लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई। मैंने सुना और पूरी शिद्दत से सुना। सुना भी और ब्‍लॉगिंग पर कुछ-कुछ बोला भी। क्‍या, मुझे खुद नहीं पता।


22 तारीख को पामुक का सेशन 5 बजे से था और मैं एक घंटे पहले से फ्रंट लॉन में डटी हुई थी ताकि सबसे आगे वाली सीट पकड़ सकूं। हालांकि वह मुझे बड़ी आसानी से मिल गई। उसके पहले जय अर्जुन सिंह के साथ किरन देसाई की बातचीत मैं सुन चुकी थी, जो बहुत एक्‍साइटिंग न होते हुए भी इंटरेस्टिंग थी। किरन देसाई को मैंने नहीं पढ़ा, फिर भी उनके लेखन के सफर, अपनी जड़ों से उखड़ने, मां अनिता देसाई के साथ उनके संबंधों की बारीकियां, मां और बेटी की जिंदगी के बुनियादी फर्क, उनके समय और वो हालात, जिसमें दो अलग-अलग स्त्रियों ने लेखन के एकांत को खोजा था, के बारे में जानना रोचक था। किरन देसाई के सेशन के बाद आधे घंटे का अंतराल और फिर ओरहान पामुक, किरन देसाई, नाम ली और चिमामांदा अदीची राना दासगुप्‍ता के साथ बातचीत में आउट ऑफ वेस्‍ट सेशन में बोलने वाले थे। नाम ली और चिमामांदा से मैं ज्‍यादा परिचित नहीं थी। पामुक के तो पूरे लेखन के केंद्र में ही ईस्‍ट और वेस्‍ट के सांस्‍कृतिक अंतविर्रोध और सत्‍ता संघर्ष है। एक ज्‍यादा अमीर और विकसित दुनिया तीसरी दुनिया के देशों, उसके सांस्‍कृतिक विकास, उसके लेखन और कला को कैसे देखती है। पामुक ने कमोबेश वही बातें कहीं, जिसका जिक्र इस्‍तांबुल: मैमोरीज एंड द सिटी में बार-बार आता है। पामुक ने कहा कि आउट ऑफ वेस्‍ट का अर्थ है एक ऐसी दुनिया से ताल्‍लुक रखना, जो वेस्‍ट की तरह अमीर नहीं है, एक ऐसी भाषा में लिखना, जो अंग्रेजी नहीं है, इसलिए ताकतवर की भाषा नहीं है, एक ऐसे समाज से आना, जो उतना आधुनिक नहीं है, एक ऐसी सांस्‍कृतिक यात्रा का हिस्‍सा होना, जो पश्चिम के आधिपत्‍य से आक्रांत रहा है, जहां रेनेसां और आधुनिक विचार अब तक नहीं पहुंच पाए हैं। और ये सारी बातें इतनी निर्णायक हैं कि ये तय करती हैं। ये तय करती हैं दुनिया के नक्‍शे में आपकी जगह को, आपके लिखे और रचे को देखे जाने की नजर को, यहां तक कि लिखे जाने को भी । ये इस हद तक तय करती हैं कि जब पामुक प्रेम पर कोई उपन्‍यास लिखते हैं तो वेस्‍ट के क्रिटीक कहते हैं : Pamuk writes about Turkish love. ये कहते हुए उनकी आंखों में थोड़ा गुस्‍सा होता है कि Its not Human Love or Global love but just a Turkish Love.

राना दासगुप्‍ता ने जब ग्‍लोबलाइजेशन का हवाला देते हुए कहा कि ये दीवारें टूट रही हैं, दुनिया एक गांव में तब्‍दील हो रही है तो लगभग दासगुप्‍ता को झिड़कते और बीच में ही चुप कराते हुए पामुक ने फिर जोर देकर कहा कि ग्‍लोबलाइजेशन भी सत्‍ता और ताकत का ही ग्‍लोबलाइजेशन है। ग्‍लोबलाइजेशन का मतलब ये नहीं कि वेस्‍ट और अमेरिका का आधिपत्‍य खत्‍म हो गया है। पामुक बहुत स्‍पष्‍ट थे कि ग्‍लोबलाइजेशन का ये गांव दुनिया के अमीरों का गांव है, हालांकि उस गांव में भी अंग्रेजी और तुर्की का फर्क बड़ा साफ है। राना दासगुप्‍ता को पामुक ने कई बार टोका। इतना कि सेशन खत्‍म होते-होते उसके चेहरे पर बेचैनी साफ नजर आ रही थी। किसी को लग सकता है कि पामुक अपने प्रतिउत्‍तर में बहुत विनम्र नहीं थे, लेकिन मुझे लगता है कि वे जो थे, बिलकुल सही थे। कुछ जवाब कभी विनम्रता से नहीं दिए जा सकते। कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो चोट के निशान और ठहरे हुए पानी की सड़न जैसी साफ होती हैं। इतनी स्‍पष्‍ट कि अगर वह न दिखें या कोई देखकर भी न देखने का नाटक करे तो उसका जवाब यही हो सकता है, जो पामुक ने दिया।

21 तारीख वाले सेशन में आर्ट ऑफ नॉवेल पर पामुक से बात करते हुए चंद्रहास चौधरी ज्‍यादा संतुलित और गंभीर थे। माय नेम इज रेड से लेकर म्‍यूजियम ऑफ इनोसेंस तक फिक्‍शन राइटिंग पर काफी बातें हुईं। पामुक को इस तरह सबसे सामने वाली कुर्सी पर बैठकर सुनते हुए लगता है कि वह काफी इंपल्सिव हैं। थोड़ा भी अज्ञान या मूर्खता को बर्दाश्‍त नहीं कर पाते। पट से काउंटर करते हैं या सामने वाले को चुप करा देते हैं। सेशन के अंत में बातचीत में किसी ने पूछा, जो ठीक से अपना सवाल पूछ भी नहीं पा रहा था तो पामुक उससे पहले ही पट से बोल पड़े- Well, more or less, I understood your question as  do you think that philosophical aspect of love is more important then its sexual aspect and the answer is “Yes.” और इतना कहने के बाद उन्‍होंने अपने मुंह को गोल किया और बोले, I was going to say more then penetration और फिर खुद ही ऐसा कहने के लिए माफी मांगने लगे कि क्‍यों‍ वो ये कहने से खुद को रोक नहीं पाए। चंद्रहास चौधरी ने भी चुटकी ली, You will be deported tomorrow morning  (Oh what else can one expect in such puritan, ethical society) और यूं नहीं कि पामुक को अंदाजा नहीं था कि वे क्‍या कह बैठे हैं, वे भी आगे जोड़ने से नहीं चूके “Tomorrow morning? No, just after this.”

सेक्‍स एंड एथिक्‍स की बात चली तो 22 तारीख की शाम याद आ गई। आउट ऑफ वेस्‍ट सेशन में किरन देसाई भी पामुक के साथ थीं और इस महान एथिकल सोसायटी के वे तमाम लोग, जिन्‍होंने पामुक की लिखी एक लाइन भी नहीं पढ़ी है, वे भी ये जानते हैं कि पामुक इज इन लव विद किरन देसाई। पूरे फेस्टिवल के दौरान मुझे इस मुहब्‍बत पर चर्चा करते कई लोग दिखे। पामुक ने क्‍या कहा से ज्‍यादा उनकी इस बात में रुचि थी कि कैसे मंच पर बैठे हुए भी वे बीच-बीच में प्‍यार से मुस्‍कुराकर किरन देसाई को देख रहे थे या वहां भी दोनों आपस में बात करने की फुरसत ढूंढ ही ले रहे थे। जयपुर से दिल्‍ली लौटते हुए बस में मेरी बगल वाली सीट पर एक लड़की बैठी थी। पूरे फेस्टिवल से सबसे इंटरेस्टिंग डिसकवरी, जो वो अपने साथ लेकर जा रही थी, वह यही थी कि पामुक हैज अफेयर विद किरन देसाई। मैंने कहा, हां।

But he is so old for her. Kiran is very young.

So what? Doesn’t matter at all. They are in love. That’s the only thing matters.

I think he is seducing her.

What???????????????????????

Yes. He is old and obsessed.

Oh really? Are you a psycho-analyst?

No, I am an aspiring writer. Attempting a novel.

(What the hell are you going to write? All about ethics of love and purity of virginity.)

Great. Best of luck.

(You are perfect for pure, ethical, moral Indian crowd. Go ahead; add your contribution in this huge heap of filth.)

 …………..

(Sick.

Fuck off.)

ऐसी बातों का वैसे ही जवाब देने का मन करता है, जैसे पामुक ने मंच से राना दासगुप्‍ता के सवाल का दिया था। वो तो फिर भी काफी डीसेंट थे। मुझे उतनी भी डीसेंसी बरतने का मन नहीं करता। उस लड़की को लगा होगा कि किरन देसाई बुरहानपुर के चौबेजी की कुंवारी कन्‍या हैं, जिसे एक बुड़ढा लेखक अपने नेम-फेम के झांसे में फंसा रहा है। जिस समाज के लोग पामुक और किरन देसाई तक को मॉरल जजमेंट से नहीं बख्‍शते, वहां कोई मनीषा पांडेय कौन सुर्खाब के पर लगाकर आई हैं। चार ओपन अफेयर के बाद वो भी हिंदी समाज के महान नैतिक पथप्रदर्शकों को घोर पतिता नजर आने लगें तो कतई आश्‍चर्य नहीं। (और आने क्‍या लगें। आ ही रही हैं।)

फिलहाल मैं सबसे आगे की लाइन में बैठी थी और इंतजार ही कर रही थी कि कब पामुक आएं और मैं एक अदद हिंदुस्‍तानी पत्रकार का हुनर दिखाते हुए उन्‍हें पकड़ लूं, दनादन कुछ सवाल दाग दूं या कम से कम एक इंटरव्‍यू के लिए वक्‍त तो मांग ही लूं, जो मैं जानती हूं कि हिंदी अखबार में कभी नहीं छपेगा। नहीं छपेगा क्‍योंकि हिंदी के लोग 20-22 साल की उम्र में अंधेरी रातों में इस्‍तांबुल की सड़कों पर अकेले भटकने वाले और बॉस्‍फोरस के किनारे अवसाद में बैठे रहने वाले पामुक का प भी नहीं जानते। वे जानना भी नहीं चाहते क्‍योंकि कुछ तो वो अपने शहर की दिनोंदिन चमकीली होती जाती रंगीनियों से इतने अभिभूत हैं और कुछ जिंदगी की बेहिसाब तकलीफों से इतने गमजदा कि उन्‍हें फुरसत ही नहीं कि जानें कि मुन्‍नी और शीला के आगे दुनिया और भी है, बदनामी और बहुत सारी, जवानी और बहुत सारी।

लेकिन फिर भी मैं ये मौका चूकना नहीं चाहती थी। वो कब आएंगे के इंतजार में बैठे हुए मैंने मंच के किनारे बैठे कुछ लोगों की आंखों में एक अजीब रहस्‍यमय चमक देखी और मेरी तीसरी आंख ने कहा कि जरूर मंच के पीछे कुछ है। मैं तुरंत उठी और पीछे गई। वही थे। नेवी ब्‍लू शर्ट और ब्‍लैक कोट में किरन देसाई के साथ कोने में खड़े बतियाते हुए। मैंने तुरंत हाथ मिलाया, अपना परिचय दिया और इंटरव्‍यू की इच्‍छा जाहिर की। जितनी मुहब्‍बत से मैंने पूछा, उतनी ही मुहब्‍बत से उन्‍होंने मना कर दिया। बोले, I am so sorry. I cannot. I am slave of my publisher. If you want to interview me, please contact my publisher. मैंने जयपुर जाने से पहले बड़ी मेहनत से सवाल तैयार किए थे। कितने तो सवाल थे, जो मैं पूछना चाहती थी। कितनी तो बातें थीं, जो मैं जानना चाहती थी, जो मैं नहीं जान सकी। फैमिली कार में ठुंसकर बॉस्‍फोरस की शरण में जाने वाले दुखी परिवारों के बारे में, उस इस्‍तांबुल इनसाइक्‍लोपीडिया के बारे में, जो उन्‍हें दादी की आलमारी में मिली थी। उस रात के बारे में, जब पिता मां को बताए बगैर पेरिस चले गए थे और उस दोपहर के बारे में भी, जब मां खिड़की से कूदकर मर जाना चाहती थी। अवसाद के उस गाढ़े रंग के बारे में, जो मैं पामुक के साथ साझा करती हूं। वही रंग, जो मैंने भी अपने बचपन के शहर में देखा है। वही रंग, जो शायद इस देश के नब्‍बे फीसदी शहरों का रंग है, सत्‍तर फीसदी चेहरों का रंग है। मुमकिन है, मैं ये सवाल नहीं पूछ पाती। बस इतना ही पूछ पाती कि बोर्हेस आपको क्‍यों इतने पसंद हैं या आपकी राइटिंग मैजिकल रिअलिज्‍म से अछूती कैसे रह गई।

जो नहीं जान सकी, उसका गम तो है लेकिन जो जान पाई, उसकी खुशी कहीं ज्‍यादा। जयपुर से लौटकर मैं बहुत खुश हूं।

PS : लौटने के बाद मैंने इस्‍तांबुल फिर से पढ़नी शुरू की। मेरी किताब पर लिखा है- फरवरी, 2007। इंदौर।

इस्‍तांबुल : मैमोरीज एंड द सिटी मैंने इंदौर में खरीदी थी और तभी पहली बार पढ़ी थी। अब फिर से पढ़ते हुए महसूस हो रहा है कि अरे, ये बातें पहले कहां थीं। ये गाढ़ा काला रंग पहले नहीं था शायद। या था शायद। बस उस रंग को पढ़ने की नजर नहीं थी।

तीसरा हिस्‍सा
एक पोलिश कवि और एक हिंदुस्‍तानी लड़की

पहला हिस्‍सा
Why loneliness matters so much?
 

Saturday 5 February 2011

Why loneliness matters so much?


जयपुर से लौटकर
पहला हिस्‍सा

अखबार के लिए लिखना कितना आसान है और अपने लिए लिखना कितना मुश्किल। जब पता हो कि आठ बजे पेज छूटना है तो उसके पहले ऑटोमैटिकली आइडियाज बरसने लगते हैं, एक से दूसरी पंक्ति जुड़ती जाती है और लो हो गई स्‍टोरी तैयार। लेकिन अपने दिल के लिए, अपनी खुशी और अपने एकांत के लिए लिखना उतना ही उलझाने वाला होता है। एकांत में इतनी सारी बातें, इतने विचार और स्‍मृतियां आपस में गुंथे होते हैं कि उनका सिरा खोजने में ही वक्‍त गुजर जाता है। ऐसे ही जयपुर से लौटकर कितना सारा वक्‍त गुजर चुका है, लेकिन ये वक्‍त जितना गुजरा है, उतना ही ठहर भी गया है। वक्‍त गुजरा है, क्‍योंकि हर दिन ऑफिस में नया एडिट पेज बनाया है, हर दिन नए आर्टिकल के साथ खुद को ज्‍यादा दुखी और उदास महसूस किया है, हर दिन घर के रोजमर्रा के काम कभी न रुकने और बदलने वाली गति से चलते रहे हैं। रोज दूधवाले ने नीचे से आवाज लगाई है, रोज किताबों पर धूल जमी है। रोज ऑफिस के गेट पर आई कार्ड चेक हुआ है और रोज कंप्‍यूटर शट डाउन करके मैं तकरीबन उन्‍हीं रास्‍तों से होती घर लौटी हूं। रोज टेलीविजन पर अमिताभ बच्‍चन ने पूछा है, जीने का लाइसेंस लिया क्‍या और रोज घर में आने वाले अखबार ने बताया है कि फलां कंपनी के 50 पर्सेंट ऑफ सेल में जिंदगी की सब खुशियों की चाभी है।

लेकिन वक्‍त ठहर भी गया है क्‍योंकि मन अभी भी डिग्‍गी पैलेस के फ्रंट लॉन, दरबार हॉल और मुगल टेंट में ही है। अभी भी ओरहान पामुक आउट ऑफ वेस्‍ट पर बात करते हुए राना दासगुप्‍ता के मूर्खतापूर्ण सवालों का थोड़ी तल्‍खी और बेचैनी से जवाब दे रहे हैं, इस अंदाज में कि दूसरे स्‍टुपिड सवाल का स्‍पेस ही न बचे। कोएत्‍जी पचास हजार लोगों की भीड़ में भी चुपचाप नजरें झुकाए हुए ऐसे हैं, मानो अपने किसी एकांत कमरे में जिंदगी और अवसाद की दूसरी दुनिया रच रहे हों। नाम ली अपने भोले और पवित्र सौंदर्य से बार-बार अपनी ओर खींच रहा है। एडम के चेहरे पर वही बच्‍चों जैसी प्‍यारी मुस्‍कुराहट है, जो दरबार हॉल में कविता पढ़ते वक्‍त उनकी आंखों में थी और उनकी कविता सुनते हुए जेएम कोएट्जी की आंखों में भी। (एडम के सेशन में कोएट्जी भी मौजूद थे।) इंपीरियल इंग्लिश पर हो रही बातचीत को सुनने के लिए नाटे कद का औसत सा दिखने वाला वह लेखक घास और मिट्टी की परवाह किए बगैर वहीं एक कोने में बैठ गया है, तकरीबन छह साल पहले तिब्‍बत और नेपाल होते हुए चीन से हिंदुस्‍तान तक के जिसके सफर को मैंने डिक्‍शनरी में एक-एक शब्‍द का अर्थ खोजते हुए फटी आंखों, कुलबुलाए दिमाग और अवसाद से भरी आत्‍मा के साथ पढ़ा था और चकित हुई थी। 25 तारीख की शाम, जब यह मेला खत्‍म होने को है, वह अपनी बुलंद आवाज में इक्‍वल म्‍यूजिक के हिस्‍से पढ़ रहा है, बातें कर रहा है। फ्रंट लॉन के एक कोने में किसी तरह जगह बनाकर खड़ी हुई मैं और शायद वहां मौजूद सभी लोग ये सोच रहे हैं कि इस सुटेबल बॉय का सेशन इतनी जल्‍दी खत्‍म हो गया। विक्रम सेठ इतना शानदार बोलते हैं कि उन्‍हें अभी और बोलते रहना चाहिए। वक्‍त सचमुच ठहर गया है। एडम जगायवस्‍की के साथ डांस करते हुए मैं भी ठहर गई हूं। मैं लौटकर अखबार के दफ्तर में नहीं जाना चाहती। 
फेस्टिवल से लौटकर होटल के कमरे के जिस एकांत में मैं गुजरे हुए दिन के साथ रातों को भी जीती हूं, ये एकांत युगों बाद नसीब हुआ है। यहां कोई नहीं। बस एक गुजर गया दिन है। बगल के कमरे में नॉर्वे से अपने ब्‍वॉय फ्रेंड के साथ आई एक लड़की है। 20 साल की उम्र में प्‍यार में है। अपने प्रेमी के साथ हिंदुस्‍तान घूमने आई है। कल सुबह अपनी बालकनी में धूप में बैठी मुराकामी की काफ्का ऑन द शोर पढ़ रही थी। किस देश से आती है ये लड़की ? कैसा होगा वह देश, वहां के लोग? कैसे ये लड़की पीठ पर एक बैग लटकाए अनंत महासागर और पहाड़ों की दूरी लांघती दूर देश के एक शहर को देखने आई है। वो हवामहल देखने, जो उसने तस्‍वीरों में देखा होगा। क्‍या वो जानती है कि इस शहर की लड़कियां और औरतें अपने कमरों से सटकर गुजरती सड़क को भी हवामहल की रंगीन शीशों वाली झिर्रियों से देखा करती थीं।  कि इस शहर की जाने कितनी  लड़कियां आज भी उन्‍हीं झिर्रियों से आसमान देखती हैं।

नॉर्वे की वो लड़की कैसे देखती है इस गुलाबी नगरी को? पता नहीं, लेकिन मैं उसे देखती हूं और इस शहर को।

मेरे कमरे में कोई नहीं है। इस कमरे में कोई और होना भी नहीं चाहिए। बस मैं और ये अकेलापन। मेरे सपने, मेरे ख्‍याल, मेरे दुख, मेरी किताबें। दिन भर की गुजरी हुई बातें। आउट ऑफ वेस्‍ट, इंपीरियल इंग्लिश। व्‍हाय बुक्‍स मैटर। 

व्‍हाय दिस लोनलीनेस मैटर्स सो मच।

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दूसरा हिस्‍सा

अवसाद का काला रंग और ओरहान पामुक  


Friday 2 April 2010

अजनबी भाषा का वह शहर और तीन लड़कियां

हॉस्‍टल के कमरे में वो तीन लड़कियां साथ रहती थीं। सदफ, शिएन और अपराजिता। सदफ हमेशा चहकती, मटकती सारी दुनिया से बेपरवाह अपनी रंगीन खुशियों में खोयी रहती थी। ज्‍यादातर समय दोस्‍तों के साथ घूमती-फिरती और रात होने से पहले ही कमरे में नमूदार होती। लौटकर भी पूरे समय मोबाइल पर लगी रहती।

शिएन कमरे के एक कोने में ऐसे रहती थी जैसे घर के किसी कोने में धूल और जालों से अटी कोई सुराही पड़ी रहती है। कोई उधर झांकने भी नहीं जाता, कोई उसके पड़े होने की परवाह भी नहीं करता। वो हो, न हो, किसी को क्‍या फर्क पड़ता है। उसकी आंखें पुराने जंग खाए कनस्‍तर सी खाली थीं, त्‍वचा महीनों अकेले धूप में पड़े हुए बैंगन की त्‍वचा जैसी झुलसी और बेजान, छातियां बिलकुल सपाट क्‍योंकि शरीर पर जरा भी मांस नहीं था। वो इतनी पतली थी कि उसकी एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। लेकिन उसके पास जीजस क्राइस्‍ट थे। चर्च का अकेला कोना और प्रेयर की एक किताब।

अपराजिता न सदफ थी, न शिएन। उसके पास न दोस्‍तों की एक लंबी फेहरिस्‍त थी, न हर शाम समंदर के किनारे उसका हाथ थामकर चूमने की हड़बड़ाहट दिखाने वाला कोई प्रेमी और न ही जीजस क्राइस्‍ट का सहारा। उसके भीतर बजबजाती रौशनियों का एक शहर था, जिसकी सीली सूनसान गलियों से होकर कोई नहीं गुजरता था। जहां पूरी रात आवारा कुत्‍ते भौंकते, दीवार चाटते, लैंपपोस्‍ट से टिककर अपनी पीठ रगड़ते और आपस में लड़ते रहते थे। हर दिन उसका मन करता कि बस हुआ, अब तो मर ही जाना चाहिए।

शिएन के मन की गलियां तो और भी ज्‍यादा खतरनाक थीं। ऐसे बंद थे सारे खिड़की-दरवाजे कि धूप की एक पतली लकीर या हवा का एक मामूली सा टुकड़ा भी भीतर नहीं जा सकता था। वो दुनिया में ऐसे अजनबियों की तरह रहती थी मानो किसी को जानती-पहचानती ही नहीं। उसके मन की अंधेरी गलियों में आवारा कुत्‍ते भी नहीं भटकते थे। आवारगी भी होती तो कम-से-कम जिंदगी की कुछ तो हलचल होती। लेकिन नहीं, मजाल था कि एक तिनका भी हिल जाए। लेकिन कभी वहां से होकर सब गुजरे थे, शराबी, जुआरी, औरतबाज, हाथ थामते ही सीधे बिस्‍तर पर सुलाने वाले और फिर वापस लौटते हुए पान की पीक जैसे सीढि़यों के कोने पर थूककर कट लेने वाले। कभी लौटकर न आने वाले। रात के अंधेरों में कपड़े उतारने को बेताब और दिन के उजाले में पहचानने से भी इनकार करने वाले। कौन जानता था उसके मन की गलियों के किस्‍से? यकीनन उसने ठीक-ठीक खुलकर कभी नहीं बताया, किसी को नहीं, लेकिन हर बात को ठीक-ठीक खुले शब्‍दों की जरूरत होती भी नहीं। वो ऐसे ही अपना अर्थ जाहिर कर देती हैं।

बयालीस की उम्र पार कर दुनिया के प्रति जैसा वैराग और अजनबियत उसकी आंखों में रहती थी, जिस तरह वो किसी को भी जरा भी करीब आते देख फट से अपने खोल में दुबक जाती, हाथ मिलाने या मुस्‍कुराने तक को तैयार न होती, पता नहीं क्‍यों कभी-कभी अपराजिता उसकी आंखों में अपना भविष्‍य देखती। शिएन जहां जा चुकी थी, अपराजिता उस ओर बढ़ रही थी। वो कुछ ज्‍यादा ही पैसिमिस्टिक थी। उन दुखों को भी अपना समझ लेती, जो उसके होते ही नहीं। जितना बतंगड़ मचाती दिखती, भीतर उतनी ही डूब रही होती।

सदफ की दुनिया बिलकुल अलग थी। उसे उन दोनों के मन की गलियों की कोई भनक तक नहीं थी। उसके मन में खुली चौड़ी राहें थीं, राहों पर बिछा आसमान। हाथ थामे साथ-साथ उड़ता हुआ प्‍यार। उसके मन की पटरियों से तयशुदा टाइमटेबल और मंजिल वाली टेनें गुजरती थीं, जिनके गुजरने के रास्‍ते तय थे और मंजिल तो सफर की शुरुआत से पहले ही तय होती थी।

अपराजिता शिएन की आंखों में देखती और डर जाती। नहीं, मैं शिएन जैसी नहीं हो सकती। मैं कभी शिएन जैसी नहीं होऊंगी। ये वहशत, ये अजनबियत, बिलकुल नहीं। न सही खुला आसमान, आवारा फिरते कुत्‍ते ही सही। वैराग नहीं, आवारगी ही सही।

गुजरी सदी के उत्‍तरार्द्ध में इसी देश के एक महानगर, जो न कभी रुकता था, न कभी सोता था, के किसी कमरे में वो तीनों लड़कियां साथ रहती थीं। यूं देखो तो कुछ खास फर्क नहीं था, पर दरअसल इतना फर्क था कि जिनके किस्‍से कहते-कहते पूरी एक उम्र गुजर जाए। एक हमेशा बात करती थी, दूसरी के पास न शब्‍द थे, न भाषा। एक के लिए चारों ओर अपने लोग, अपने संगी थे, दूसरी का कोई दोस्‍त नहीं था।

ये उसी सदी में उसी देश में घट रहा था, जहां के तमाम नियम-संविधान हर किसी के लिए एक जैसे सुखों और दुखों की गारंटी करते थे, पर जिस देश में एक के लिए राजधानी के संगमरमरी कालीन थे और दूसरा मां के पेट से बाहर आते ही जान लेता था कि वो एक ऐसे अजनबी संसार में आ गया है, जहां सब एक विचित्र, अजनबी भाषा बोलते हैं। वो कभी उस दुनिया का हिस्‍सा नहीं हो सकेगा। जहां कोई उसका अपना नहीं, जहां कभी कोई उसका अपना नहीं होगा।

Thursday 1 April 2010

जीवन की छोटी मामूली बातें

ये प्‍यार जताना, पकड़ना किसी का हाथ, कहना I love you, ये क्‍यों इतना जरूरी है? जो न कहो तो कुछ फर्क पड़ता है क्‍या? जो मैं ये न कहूं किसी से या कि कोई मुझसे तो क्‍या बिगड़ता है? कितनी मामूली बातें? जीवन की ये बहुत छोटी, मामूली बातें, इनसे सचमुच कुछ बदलता है क्‍या? पता नहीं। लेकिन शायद ये बेहद मामूली सी दिखने वाली बातें ही कई बार बहुत मुश्किल ऊबड़-खाबड़ सी जिंदगी को जीने लायक बनाती हैं।

ऐसी जाने कितनी छोटी, मामूली बातें हैं, जो मुझे बार-बार जिंदगी की ओर लौटा लाती हैं। दुख और थकन के सबसे अंधेरे दिनों में आकर मेरा हाथ थाम लेती हैं। मेरे उलझे बाल सुलझाती हैं, गालों को छूती हैं। मेरे तकिए पर सो जाती हैं। मेरे बगल में लेटकर एक पैर मेरे ऊपर रख लगभग जकड़ सी लेती हैं। ऐसे कि मैं हिल भी न सकूं और कहती हैं, चुप, अब लात खाएगी, ज्‍यादा भैं-भैं किया तो। मेरी हथेली को अपनी हथेलियों में थामे देर तक बस यूं ही बैठी रहती हैं। कुछ कहती नहीं, बस बता देती हैं कि मैं हूं।

बेहद छोटी, मामूली बातें।

सोचो तो कितना मुश्किल है ये जीवन। हम सब अपने भीतर उदास बदरंग रौशनियों का एक शहर लिए फिरते हैं। बेमतलब भटकता है मन उस शहर की अंधेरी, संकरी गलियों में। पूरी रात भटकता है, बिना ये जाने कि जाना कहां है। मैं भी अपने भीतर के उस बदरंग रौशनियों वाले शहर में बेमतलब, उदास भटका करती थी। मुंबई के वे दिन जिंदगी के सबसे अकेले दिन थे। हालांकि समूची जिंदगी के बहुत सारे दिन अकेले दिन ही होते हैं। लेकिन वो अकेलापन इतनी भारी थी कि उसका बोझ मैं अकेले नहीं उठा सकती थी। वो छोटी, मामूली बातें ही अपना हाथ आगे बढ़ातीं और बोझ बांट लेतीं।

चर्नी रोड में ऑफिस से बाहर निकलते ही सड़क पार करके समंदर था। दो बस स्‍टॉप ऑफिस से समान दूरी पर थे। एक हॉस्‍टल की तरफ और दूसरा समंदर की तरफ। मैं बस का इंतजार करने हमेशा समंदर की तरफ वाले बस स्‍टॉप पर जाती। वो स्‍टॉप बहुत प्‍यारा लगता था, सिर्फ इसलिए क्‍योंकि वहां से समंदर को देखा जा सकता था। वहां खड़े होकर घंटों इंतजार करना भी नहीं खलता। ऑफिस बहुत उदास सा था और जीवन बेहद अकेला। बस का इंतजार करते हुए सिर्फ कुछ क्षण समंदर का साथ मेरे चेहरे पर एक मुस्‍कान ला सकता था।

भारतीय विद्या भवन में ही नीचे सितार की क्‍लासेज होती थीं। दफ्तर में बैठी दोपहरी बहुत बोझिल होती। लगता था कहीं भाग जाऊं। बस कहीं भी निकल जाऊं। दिन भर फोन की घंटी का इंतजार होता। किसी की आवाज का, एक मेल का। दफ्तर में आने वाली डाक का। घंटी नहीं बजती थी क्‍योंकि उसे बजना नहीं होता था। चिट्ठी नहीं आती, क्‍योंकि उसे आना नहीं होता था। शाम तक उदासी दोहरी हो जाती। मैं हॉस्‍टल लौटने के बजाय सेकेंड फ्लोर पर सितार की क्‍लास में जाकर बैठ जाती। घंटों चुपचाप बैठी रहती। वहां कई लड़के-लड़कियां एक साथ रियाज कर रहे होते थे। सितार के तारों पर दौड़ती-फिसलती उंगलियों से ऐसे सुर उठते, हवाओं में ऐसा रंग बहता कि उदासी के सब धुंधलके उसमें धुल जाते। लगता कि सितार के तारों से बहकर कोई नदी मेरी ओर चली आती थी। उसका एक-एक सुर मेरी उंगलियां थामकर कहता था, क्‍यों हो इतनी उदास। देखो न, दुनिया कितनी सुंदर है।

ऑफिस से लौटते हुए बस की खिड़की पर टिकी हुई उदास आंखों में कोई भी मामूली सी चीज एकाएक चमक पैदा कर सकती थी। मोहम्‍मद अली रोड से बस गुजरती तो शाम को एक मस्जिद के खुले मैदान में अजान की नमाज पढ़ी जा रही होती। सैकड़ों सिर एक साथ झुकते और उठते। वो दृश्‍य देखकर मेरा झुका हुआ सिर एकाएक उठ जाता था। जब तक बस गुजर न जाती, मैं वह दृश्‍य देखती रहती। बड़ी मामूली सी बात थी, पर पता नहीं क्‍यों सुंदर लगती थी। रास्‍ते में कोई 6-7 बरस की बच्‍ची ढा़ई मीटर का लंबा दुपट्टा ऐसे नजाकत से संभालने की कोशिश करती, मानो कह रही हो, मैं बड़ी लड़की हूं। मुझे बच्‍ची मत समझना। उसके पीछे-पीछे एक कुत्‍ता दुम दबाए चला जाता। वो छोटी बच्‍ची भी मेरी आंखों में रोशनी ला सकती थी।

बस में कोई 16-17 बरस की चहकती हुई सी लड़की चढ़ती। खुशी और उमंग से भरी, किसी परी‍कथा कि फिरनी जैसी, मोबाइल पर बेसिर-पैर की बातें करती। उसे देखकर मैं खुश हो जाती थी। कोई प्रेमी जोड़ा, जो बस में बैठे सहयात्रियों की तनिक भी परवाह किए बगैर अपनी बेख्‍याली में गुम होता, मेरे भीतर उम्‍मीद जगाता था। दुनिया सचमुच सुंदर है।

हॉस्‍टल लौटती तो मेरे कमरे के नीचे सीढि़यों पर जानू मेरा इंतजार करती मिलती। जानू एक नन्‍ही सी बिल्‍ली थी। उसका ये नाम मैंने ही रखा था। कमरे का ताला खोलने से पहले उसे गोदी में लेकर प्‍यार करना होता था, वरना वो नाराज हो जाती। मेरी गोदी में बैठकर मेरे कुर्ते को दांत से पकड़ती, हथेलियां चाटती, मैं फ्रेश होने बाथरूम में जाती तो पीछे-पीछे चली आती। जब तक बाहर न निकलूं, दरवाजे पर ही बैठी रहती। इतनी शिद्दत से कोई मेरा इंतजार नहीं करता था। इस इतने बड़े शहर में, जहां हर जगह लोग किसी न किसी का इंतजार करते दिखते थे, मेरा इंतजार कोई नहीं करता था, जानू के अलावा। उससे दोस्‍ती होने के बाद मुझे हॉस्‍टल लौटने की जल्‍दी रहने लगी थी। वहां कोई था, जिसे मेरा इंतजार था।

हॉस्‍टल की बालकनी में आम के पेड़ का घना झुरमुट था। बालकनी की रेलिंग पर अक्‍सर एक गिलहरी आती-जाती। किसी अकेली सुबह को वो पेड़ और वो गिलहरी मुझे अपने होने के एहसास से भर सकते थे।

वो शहर बहुत चमकीला था, लेकिन उसकी हर चमक से लोगों के दिलों के अंधेरे और गाढ़े हो जाते थे। एक अजीब सी आइरनी है। मैं मुंबई से अथाह प्रेम और उससे भी ज्‍यादा घृणा एक साथ करती रही हूं। रात के समय Marine Drive पर बैठी होती तो एक ओर अछोर समंदर और उस पर उतरती घनी रात होती तो दूरी ओर आलीशान पांच सितारा होटलों और इमारतों से बह-बहकर आती रौशनी। मैं रौशनी की ओर पीठ करके समंदर पर उतरते अंधेरे को देखती। वो अंधेरा उम्‍मीद जगाता था। मैं समंदर ही लहरों से कहती, दूर क्षितिज पर टंके सितारों से कहती, समंदर में कहीं चले जा रहे जहाज से कहती और दरअसल अपने आप से कहती, इन रंगीनियों के फेर में मत पड़ना। तुम हो तो सब सुंदर है, ये जहां सुंदर है। घंटों इस तरह अपने आप से बातें करने के बाद जब मैं हॉस्‍टल वापस लौटती तो एक नई पहाड़ी नदी मेरे भीतर बह रही होती थी। मैं शब्‍दों की छोटी-छोटी नाव उस नदी में तैराती, हॉस्‍टल लौटकर कविताएं लिखती।

हॉस्‍टल के कमरे में भी ऐसी कई छोटी, मामूली चीजें थीं, जो बुझते हुए मन को दुनिया की हवाओं से आड़ देती थीं। किसी दोस्‍त का इलाहाबाद से आया कोई खत, पद्मा दीदी का भेजा बर्थडे कार्ड, मेरी डायरी के वो पन्‍ने, जो मैंने चहक वाले दिनों में लिखे थे, नेरूदा की प्रेम कविताएं (न मेरी जिंदगी में प्रेम था और न नेरुदा ने वो कविताएं मेरे लिए लिखी थीं, फिर भी उन्‍हें पढ़ना प्रेम की उम्‍मीद जगाता था), एक पुरानी टेलीफोन डायरी, जिसमें इलाहाबाद के वे पुराने नंबर और पते थे, जो अब बदल चुके थे, जिन पर भेजा कोई खत अब अपने ठिकाने तक नहीं पहुंच सकता था, पुरानी चिट्ठियां जो मैंने लिखीं और जो मुझे लिखी गईं। अजीब शौक है। जब भी मैं उदास होती हूं तो वो पुरानी चिट्ठियां पढ़ती हूं। यकीन नहीं होता, मेरी ही जिंदगी के चित्र हैं। ये पंक्तियां मुझे ही लिखी गई थीं क्‍या ? पुराने फोटो एलबम। मां-पापा के बचपन की तस्‍वीरें। मेरे बचपन की तस्‍वीरें। एक पुराना बेढ़ब कटिंग और तुरपाई वाला कुर्ता, जो मैने अपने हाथों से सिला था। जर्मेन ग्रियर की वो किताब, जो मैंने बीए फर्स्‍ट इयर में ट्यूशन की अपनी पहली कमाई से खरीदी थी।

एक पेन और भूरी जिल्‍द वाली वो डायरी, जो मैं उसके घर से उठा लाई थी और क्‍योंकि उसे छूकर मुझे लगता कि वो है मेरे पास। ये सिर्फ दिल के बहलाने का एक ख्‍याल था, जबकि जानती तो मैं भी थी कि दूर-दूर तक कहीं नहीं था वो। वो तमाम लोग, जो जा चुके थे, लेकिन उनसे जुड़ी कुछ चीजें बची रह गई थीं। बेहद छोटी, मामूली चीजें, लेकिन उन्‍हीं मामूली चीजों से मिलकर मैं बनती थी, मेरा जीवन बनता था।

ये छोटी, मामूली चीजें हमेशा कहतीं, ना जीवन अब भी संभावना है, प्रेम अब भी संभावना है और हमेशा रहेगी। दुख और टूटन के सबसे बीहड़ दिनों में भी हम सब तुम्‍हारे कमरे में ऐसे ही रहेंगे तुम्‍हारे साथ।

प्रेम की उम्‍मीद र‍हेगी तुम्‍हारे साथ।

जारी........



Sunday 28 March 2010

प्‍यार की भाषा कहां खो गई है

अभी कुछ दिन पहले हिंदी के कवि चंद्रकांत देवताले जी के किसी परिचित से मेरी मुलाकात हुई। उसने बताया कि देवताले जी से उसने मेरे बारे में काफी कुछ सुन रखा है और बातचीत के दौरान ही उसने एकदम से पूछ लिया, ‘जब वो वेबदुनिया में आपसे मिलने आए थे तो आपने उन्‍हें सबके सामने हग किया था न?’

‘तुम्‍हें कैसे मालूम? वेबदुनिया वालों ने तुम्‍हें ये भी बता दिया?’

‘नहीं, देवताले जी ने बताया। कह रहे थे कि ऑफिस में ढेर सारे लोग थे और सबके सामने ही आप दौड़कर आईं और उन्‍हें गले लगा लिया।’

‘हां, वो हैं ही इतने प्‍यारे। इतने अच्‍छे इंसान कि कैसे कोई उन्‍हें गले से न लगाए।’

ये तकरीबन तीन साल पुरानी बात है। तब मैं वेबदुनिया में थी। देवताले जी इंदौर आए थे। उन्‍हें पता चला कि मैं वेबदुनिया में हूं तो मिलने चले आए। मुझे उनके इस तरह आने से इतनी खुशी हुई कि मैं तेजी से उनके पास गई और खुशी से भरकर उन्‍हें गले से लगा लिया। उन्‍होंने ने भी बिटिया कैसी हो, कहते हुए ढेर सा लाड़ उड़ेला।

लेकिन चूंकि मैं हमेशा ही, जिसे भी दिल से पसंद करती हूं, गले मिलकर ही मिलने की खुशी और गर्मजोशी जताती हूं तो मुझे एहसास तक नहीं हुआ कि मैंने हिंदुस्‍तान के हिंदी प्रदेशों की स्‍नेह को अभिव्‍यक्‍त करने की सीमाओं के हिसाब से कोई बड़ा काम कर डाला है, इतना बड़ा कि लोगों ने साढ़े तीन साल गुजरने के बाद भी उसे याद रखा हुआ है।

देवताले जी की उम्र 75 के आसपास होगी। उन्‍हें जानने वाला कोई व्‍यक्ति, अगर बहुत काईयां टाइप नहीं हुआ तो उन्‍हें पसंद किए बगैर नहीं रह सकता। लेकिन क्‍या लोग आगे बढ़कर उनसे कभी कहते हैं कि वो उनसे कितना प्‍यार करते हैं। 75 साल के उस बूढ़े को क्‍या कभी भी कोई गले लगाकर ये कहता है कि मैं आपसे बहुत प्‍यार करता हूं या कि करती हूं।

क्‍या हमारे देश में कोई भी किसी को गले लगाकर अपना प्‍यार जताता है।

क्‍या हम अपने आसपास कभी भी किसी को गले लगाकर कहते हैं, ‘Listen My Friend, I love you.’

किसी की बुराई करने, पीठ पीछे टेढ़ा बोलने, मेढ़क जैसे कैरेक्‍टर का डिसेक्‍शन करने में तो हम ढाई दफे भी नहीं सोचते। ऑफिस में हमेशा देखती हूं कि दो लोग मिलकर किसी तीसरे की लानत-मलामत करते गालियों के पहाड़ खड़े करते रहते हैं। फलां ऐसा और ढंका ऐसा। अकेले वही महानता के बुर्ज पर सुशोभित हैं, बाकी तो कीचड़ में लि‍थड़े जोकर कुमार हैं।

सबकुछ कह डालते हैं पर कभी किसी से ये नहीं कहते कि तुम कितने अच्‍छे हो या कि मैं तुमसे कितना प्‍यार करता हूं।

प्‍यार शब्‍द को हमने गर्लफ्रेंड-ब्‍वॉयफ्रेंड या पति-पत्‍नी के लिए रिजर्व रखा हुआ है। (ये बात अलग है कि वो भी एक-दूसरे को I love you कहने की जरूरत कभी महसूस नहीं करते।) बाकी लोग एक-दूसरे से प्‍यार नहीं करते। इंसानों ने अपनी दुनिया में एक-दूसरे तक अपनी-अपनी बातों की आवाजाही के लिए जो खिड़कियां बनाई हैं, उसमें प्‍यार का कोई ईंटा, गारा, सरिया नहीं लगा है। हमारी भाषा भी प्रेम के शब्‍दों को जोड़कर नहीं तैयार की गई है, जबकि मनुष्‍य इस दुनिया में प्रेम की भाषा के साथ ही पैदा होता है। कोई सिखाता नहीं, लेकिन एक दिन का बच्‍चा भी प्रेम और स्‍पर्श की भाषा समझता है।

ये बात पहली बार मुझे उस दिन समझ में आई थी, जब मेरी एक कजिन की बिटिया ने अपनी नन्‍ही-नन्‍ही ह‍थेलियां बढ़ाकर मेरे स्‍नेह को थाम लिया था। वो उस समय महज दो महीने की थी और बिस्‍तर पर लेटी-लेटी पूरी ताकत से हाथ-पैर फेंक रही थी। अचानक मैं उसके ऊपर झुकी और उसके माथे को चूम लिया। फिर उसके गालों की पप्‍पी ली और फिर होंठों को बहुत लाड़ से चूमा।

‘मेरी नन्‍ही कली, मेरी शोना, मेरी चांद।’

मुझे कल्‍पना तक नहीं थी कि इस पर उस नन्‍हे से फूल की क्‍या प्रतिक्रिया हो सकती है। अचानक मैंने महसूस किया कि उसने हाथ-पैर चलाना बंद कर दिया है। वो शांत हो गई और अपने तरीके से मेरे स्‍नेह में साझीदार हो गई। मैं महसूस कर सकती थी कि वो दो महीने की बच्‍ची मेरे चूमे जाने के साथ बराबरी से शामिल थी। वो अपने होंठों से मुझे भी चूमकर मेरे प्रेम का जवाब दे रही थी। वो क्षण मेरे लिए एक नए अलौकिक संसार के दरवाजे खुलने की तरह था। अब वो तीन साल की है और अब भी प्रेम की भाषा समझती है और प्रेम की साझेदारी में पीछे नहीं हटती, बल्कि खुद आगे बढ़कर हाथ थाम लेती है। घर में सबको बहुत अच्‍छा लगता है क्‍योंकि वह सिर्फ तीन साल की है। बड़ी होकर भी इतने ही प्रेम से भरी रही तो घरवालों समेत दुनिया वालों को मियादी बुखार जकड़ लेगा। लेकिन जैसे घर में वह पैदा हुई है, बहुत मुमकिन है कि मेरी उम्र तक आते-आते वैसी रह ही न जाए, जैसी जन्‍म के दो महीने बाद थी। दुनिया उसे वैसा बना दे, जैसा दुनिया को लगता है कि लोगों को और खासकर लड़कियों को तो जरूर ही होना चाहिए।

प्रेम की भाषा क्‍या इतनी शर्मनाक है? किसी को गले से लगाते ही क्‍या आप उदात्‍त मनुष्‍य की ऊंचाई से लुढ़ककर सीधे जमीन पर आ पड़ते हैं। क्‍या, प्रॉब्‍लम क्‍या है? प्रेम इतना अछूत है क्‍या? अपनी बनाई दुनिया के लिए क्‍या हमें कभी भी शर्म महसूस होती है। मेरे भाई के घर में जो डॉगी है, वो भी अपना प्‍यार एक्‍सप्रेस करने से पहले ढा़ई घंटे विचार नहीं करता कि हाय, कहीं ये अनैतिक तो नहीं। घर में घुसते ही मेरे ऊपर चढ़ने, चाटने लगता है। मेरी ह‍थेलियों को अपने मुंह से पकड़ेगा, आगे के दोनों पैर रखकर मेरे ऊपर चढ़ जाएगा और मुंह चाटेगा। पैरों के पास बैठकर पैर चाट-चाटकर खुश होगा और बड़े प्‍यार से मेरी ओर देखेगा कि अब तो मेरी पीठ थपथपाओ, मुझे प्‍यार करो। न करूं तो बच्‍चों जैसे नाराज भी हो जाएगा।

मुंबई के हॉस्‍टल में एक बिल्‍ली रहती थी। वो भी रोज शाम को मेरे ऑफिस से लौटने का इंतजार करती थी और आते ही गोदी में चढ़कर बैठ जाती, हाथ-पैर चाटती। उसके मन भी बड़ा प्‍यार था, जिसे जताने से पहले न वो उनके नैतिक-अनैतिक पहलुओं पर विचार करती थी और न ही संकोच से गड़ जाती थी। मेरे ऑफिस जाने से पहले और लौटने के बाद उसे लाड़ करना ही करना होता था।

बच्‍चों को भी लाड़ करना ही करना होता है। उन्‍हें प्‍यार करना आता है, लेकिन जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, प्‍यार की भाषा शर्म का सबब हो जाती है। वो गाली-गुच्‍चा, मारपीट, हर भाषा के साथ कंफर्टेबल होते जाते हैं, पर प्‍यार की बात नहीं करते।

मैं संसार की भाषा को शर्मनाक और त्‍याज्‍य समझती हूं। आपने ऐसी दुनिया बनाई है कि जिसके लिए आपको शर्म से डूब जाना चाहिए। मैं अपनी भाषा खुद रच रही हूं। हर उस बंधन को गटर में झोंकते हुए, जिसे आपने मोर मुकुट की तरह मेरे माथे पर सजाने की हमेशा कोशिश की है। मैं अपनी भाषा हवा से सीखती हूं, जो मौका मिलते ही आकर मेरे गालों पर बैठ जाती है और मेरे बाल हिलाने लगती है। उन फूलों से, जो मोहब्‍बत से भरकर झुक जाते हैं। उस पहाड़ी नदी से, जो अपनी राह में आने वाले हर खुरदरी चट्टान को प्रेम के स्‍पर्शों से मुलायम कर देती है।

अब मैं पापा के पैर नहीं छूती। उन्‍हें गले लगाकर कहती हूं, Papa, I Love you। वो बड़े प्‍यार से मुझे देखकर मुस्‍कुराते हैं पर कभी भी जवाब में ये नहीं कहते, I Love you too बेटा। हालांकि वो अपने समय और समाज के हिसाब से बहुत ज्‍यादा रौशनख्‍याल हैं, लेकिन फिर भी तमाम बंधन बचे रह गए हैं। मैं साठ साल की उम्र में अब उन्‍हें बदल नहीं सकती। मां को भी गले लगाकर I Love you बोलती हूं और मां का जवाब होता है, I love you too बेटा।

मुझे याद नहीं कि कब मैं इतनी बड़ी हो गई कि पापा ने मुझे गले लगाना या लाड़ करना छोड़ दिया था, पर बड़े होने के बाद मैंने उस सीमा को तोड़ा। क्‍योंकि मुझे उनका हाथ पकड़ने की जरूरत थी और मुझे जो जरूरत होती है, मैं कर डालती हूं। ज्‍यादा सोचती नहीं।

बहुत साल पहले, जब मैं मुंबई जा रही थी, इलाहाबाद स्‍टेशन पर हावड़ा-मुंबई मेल छूटने से कुछ सेकेंड पहले, जब मैं टेन में थी और पापा प्‍लेटफॉर्म पर खड़े थे, मैंने खिड़की की सलाखों पर रखे पापा के हाथ को चूमकर कहा था, Papa I love you. पापा की वो आंखें आज भी मेरे जेहन में ताजा हैं। बिलकुल भर आई थीं और उनमें मेरे लिए ढेर सारा प्‍यार था। पापा कितने खुश होते हैं, इस बात से कि जो सीमाएं वो नही तोड़ पाए, मैं तोड़ देती हूं और इस तरह मैं खुद उनकी भी मदद कर रही होती हूं।

मैं सचमुच हर वो दुष्‍ट सीमा तोड़ देना चाहती हूं, जो मुझे कमतर इंसान बनाती है। मैं हमारे घर के डॉगी और हॉस्‍टल वाली बिल्‍ली की तरह होना चाहती हूं। बिलकुल सहज, वैसी जैसा प्रकृति ने मुझे रचा है। मैं चाहती हूं कि मेरी दीदी की बिटिया कभी न बदले और जब वो मेरी उम्र की हो और मैं 62 साल की बूढ़ी तो मुझे 32 साल पहले की तरह चूमकर कहे, मौसी, I Love you. वैसे भी 62 साल की बूढ़ी औरत को कौन प्‍यार से चूमने में इंटरेस्‍ट दिखाएगा।

मैं हर उस व्‍यक्ति से अपने मन की बात कहना चाहती हूं, जिससे मैं सचमुच प्‍यार करती हूं। मैं पापा को गले लगाकर कहना चाहती हूं, Papa, I love you. प्रणय दादा को बोलना चाहती हूं, Dada, I truly love you. रस्किन बॉन्‍ड से कभी मिलूं तो कहूंगी, Mr. Bond, see how much we all love you. Specially I love you. मैं निशा दीदी को कहना चाहती हूं, दीदी तुम बहुत प्‍यारी हो और मैं तुमसे बहुत प्‍यार करती हूं। अपने नानाजी को कहना चाहती हूं, नानू, आपसे मेरे विचार नहीं मिलते, लेकिन मैं आपसे बहुत प्‍यार करती हूं। रिंकू भईया को बोलना चाहती हूं, तुम्‍हारे जैसा भाई कोई नहीं। भईया, I love you. मैं शायदा, अभय, प्रमोद, अशोक, तनु दीदी, शुभ्रा दीदी, भूमिका, दादू, अवधेश, अनिल जी, ललित, मेरी बहन, अभिषेक, गोलू और अपने उन तमाम दोस्‍तों को, जितने मैं बहुत प्‍यार करती हूं, कहना चाहती हूं, 'नालायकों, Listen, I Love you.'

ये प्‍यार जताना मुझे इंसान बनाता है और मैं इंसान बनी रहना चाहती हूं।

PS : ये नालायक शब्‍द अभय, प्रमोद, अशोक, दादू और अनिल जी के लिए नहीं है। बाकी सब are truly नालायक।


We all shit, we all pee but never talk about it - 2

बंबई में फिल्‍म रिपोर्टिंग करते हुए जब तक मैं खुद इस दिक्‍कत से नहीं गुजरी थी, मेरे जेहन में ये सवाल तक नहीं आया था। पब्लिक टॉयलेट यूज करने की कभी नौबत नहीं आई, इसलिए उस बारे में सोचा भी नहीं। लेकिन अब अपनी दोस्‍त लेडी डॉक्‍टर्स से लेकर अनजान लेडी डॉक्‍टर्स तक से मैं ये सवाल जरूर पूछती हूं कि औरतों के बाथरूम रोकने, दबाने या बाथरूम जाने की फजीहत से बचने के लिए पानी न पीने के क्‍या-क्‍या नतीजे हो सकते हैं? कौन-कौन सी बीमारियां उनके शरीर में अपना घर बनाती हैं और आपके पास ऐसे कितने केसेज आते हैं। मेरे पास कोई ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं है कि लेकिन सभी लेडी डॉक्‍टर्स ने यह स्‍वीकारा किया कि औरतों में बहुत सी बीमारियों की वजह यही होती है। उन्‍हें कई इंफेक्‍शन हो जाते हैं और काफी हेल्‍थ संबंधी कॉम्‍प्‍लीकेशंस। कई औरतें प्रेग्‍नेंसी के समय भी अपनी शर्म और पब्लिक टॉयलेट्स की अनुपलब्‍धता की सीमाओं से नहीं निकल पातीं और अपने साथ-साथ बच्‍चे का भी नुकसान करती हैं। यूं नहीं कि ये रेअरली होता है। बहुत ज्‍यादा और बहुत बड़े पैमाने पर होता है। खासकर जब से औरतें घरों से बाहर निकलने लगी हैं, नौ‍करियां करने लगी हैं और खास तौर से ऐसे काम, जिसमें एक एयरकंडीशंड दफ्तर की कुर्सी नहीं है बैठने के लिए। जिसमें दिन भर इधर-उधर भटकते फिरना है।

मुंबई में मेरे लिए ये सचमुच एक बड़ी समस्‍या थी। हमेशा आप किसी सेंसिटिव सी जान पड़ने वाली फीमेल सेलिब्रिटी के घर ही तो नहीं जाते। या कई बार किसी के भी घर नहीं जाना होता, फिर भी भटकना होता है। मैं तो ऐसी भटकू राम थी कि बिना काम के भी भटकती थी। तो ऐसे में मैंने एक तरीका और ईजाद किया था। बॉम्‍बे में वेस्‍टसाइड, ग्‍लोबस, फैब इंडिया और बॉम्‍बे स्‍टोर से लेकर शॉपर्स स्‍टॉप तक जितने भी बड़े स्‍टोर थे, उनका इस्‍तेमाल मैं पब्लिक टॉयलेट की तरह करती थी। जाने कितनी बार मैं इन स्‍टोरों में कुछ खरीदने नहीं, बल्कि इनका टॉयलेट इस्‍तेमाल करने के मकसद से घुसी हूं। काउंटर पर बैग जमा किया, दो-चार कपड़े, सामान इधर-उधर पलटककर देखा और चली गई उनके वॉशरुम में। इससे ज्‍यादा उन स्‍टोर्स की मेरे लिए कोई वखत नहीं थी।

बचपन में मैंने मां, मौसी, ताईजी और घर की औरतों को देखा था कि वो कहीं भी बाहर जाने से पहले बाथरूम जाती थीं और घर वापस आने के बाद भी सबसे पहले बाथरूम ही जाती थीं। गांव में, जहां हाजत के लिए खुले खेतों में जाना पड़ता है, वहां तो सचमुच औरतों के शरीर में (सिर्फ औरतों के) अलार्म फिट था। उन्‍हें सुबह उजाला होने से पहले और शाम को अंधेरा होने के बाद ही हाजत आती और कमाल की बात थी कि पड़ोस, पट्टेदारी की सारी औरतों को एक साथ आती थी। सब ग्रुप बनाकर साथ ही जाती थीं, मानो किसी समारोह में जा रही हों। मैं भाभी, दीदी टाइप महिलाओं से बक्‍क से पूछ भी लेती थी, आप लोगों को घड़ी देखकर टॉयलेट आती है क्‍या?’ कइयों ने कहा, हां और कइयों ने स्‍वीकारा कि दिन में जाने का जोर आए तो दबा देते हैं।

कितनी अजीब है ये दुनिया। टायलेट जाते भी औरतों को शर्म आती है, मानो कोई सीक्रेट पाप कर रही हों। जिस कमरे से होकर बाथरूम के लिए जाना पड़ता है, या जिस कमरे से अटैच बाथरूम है, उस कमरे में अगर जेठ जी, ससुर या कोई भी पुरुष बैठा है तो मेरी दीदियां, भाभियां, मामियां और घर की औरतें रसोई में चुपाई बैठी रहेंगी, लेकिन बाथरूम नहीं जाएंगी। बोलेंगी, नहीं, नहीं, वो जेठजी बैठे हैं। हर दो मिनट पर झांकती रहेंगी, दबाती रहेंगी, लेकिन जाएंगी नहीं। जेठजी तो गेट के बाहर गली खड़े होकर करने के लिए भी दो मिनट नहीं सोचते। बहुएं मरी जाती हैं।

जेठ-बहू को जाने दें तो पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा लड़कियों के दिमाग भी कुछ खास रौशनख्‍याल नहीं हैं। इंदौर में वेबदुनिया में लेडीज टॉयलेट का रास्‍ता एक बड़े केबिन से होकर गुजरता था, जहां सब पुरुष काम कर रहे होते थे। वहां भी लड़कियां बाथरूम जाने में संकोच करती थीं। कहतीं,

सब बैठे रहते हैं वहां पर, सबको पता चल जाएगा कि हम कहां जा रहे हैं।

अरे तो चलने दो न पता, कौन सा तुम अभिसार पर जा रही हो।

अभिसार मतलब।

‘अभिसार मतलब रात में छिपकर अपने प्रेमी से मिलने जाना। अभिसार पर जाने वाली अभिसारिका।

तुम बिलकुल बेशर्म हो।

इसमें बेशर्म की क्‍या बात है। अभिसार में शरमाओ तो समझ में भी आता है। लेकिन बाथरूम जाने में कैसी शर्म। जो लोग वहां बैठे हैं, वो नहीं जाते क्‍या।

नहीं यार, अच्‍छा नहीं लगता।

ऐसे ही इस दुनिया को जाने क्‍या-क्‍या अच्‍छा नहीं लगता। आपकी बाकी चीजें तो अच्‍छी नहीं ही लगतीं, लेकिन अब आप पानी पीना, बाथरूम जाना भी छोड़ दीजिए। लोगों को अच्‍छा जो नहीं लगता।

ये इतनी स्‍वाभाविक जरूरत है, लेकिन इसके बारे में हम कभी बात नहीं करते। बच्‍चा पैदा होते साथ ही रोने और दूध पीने के बाद पहला काम यही करता है, लेकिन औरतों के बाथरूम जाने को लेकर समाज ऐसे पिलपिलाने लगता है मानो बेहया औरतें भरे चौराहे आदमी को चूम लेने की बेशर्म जिद पर अड़ आई हों। नहीं, हम तो यहीं चूमेंगे, अभी इसी वक्‍त।

हम कोई अतिरिक्‍त सहूलियत की बात नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि बहुत मानवीय, उदात्‍त, गरिमामय समाज की डिमांड की जा रही है। प्‍लीज, प्‍यार कर सकने लायक खुलापन दीजिए समाज में, इतना कि अपने दीवाने को हम चूम सकें। रात में समंदर किनारे बैठकर बीयर पीना चाहें तो पीने दीजिए। हल्‍द्वानी-नैनीताल की बीच वाली पहाड़ी पर रात में बैठकर सितारों को देखने दीजिए। नदी में तैरने दीजिए, आसमान में उड़ने दीजिए। राहुल सांकृत्‍यायन की तरह पीठ पर एक झोला टांगे बस, Truck, टैंपो, ऑटो, बैलगाड़ी, ठेला जो भी मिले, उस पर सवार होकर दुनिया की सैर करने दीजिए। अपनी बाइक पर हमें मनाली से लेह जाने दीजिए और बीच में अपनी नाक मत घुसाइए, प्‍लीज। प्‍यार की खुली छूट दीजिए या फ्री सेक्‍स कर दीजिए।

ऐसा तो कुछ नहीं मांग रहे हैं ना। बस इतना ही तो कह रहे हैं कि बाथरूम करने दीजिए। घूरिए मत, ऐसी दुनिया मत बनाइए कि बाथरूम जाने में भी हम शर्म से गड़ जाएं। इतने पब्लिक टॉयलेट तो हों कि सेल्‍स गर्ल, एलआईसी एजेंट या हार्डकोर रिपोर्टर बनने वाली लड़कियों को यूरीनरी इंफेक्‍शन होगा ही होगा, ये बहार आने पर फूल खिलने की तरह तय हो।

प्‍लीज, ये बहुत नैचुरल, ह्यूमन नीड है। इसे अपने सड़े हुए बंद दिमागों और कुंठाओं की छिपकलियों से बचाइए। सब रेंग रही हैं और हम अस्‍पतालों के चक्‍कर लगा रहे हैं।

समाप्‍त।

पहली कड़ी - We all shit, we all pee but we never talk about it - 1